Pareshan Hoke Meri

Muhammad Iqbal

परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए
परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए
जो मुश्किल अब है या रब फिर वो ही मुश्किल न बन जाए , परेशाँ

आ आ आ, कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को
याद आती है राही को, याद आती है राही को
खटक सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए
खटक सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए
परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए , परेशाँ

आ आ आ, बनाया इश्क़ ने दरिया-ए-ना-पैदा-गराँ मुझ को
आ आ आ आ आ, आ आ आ आ आ आ
बनाया इश्क़ ने दरिया-ए-ना-पैदा-गराँ मुझ को
ये मेरी ख़ुद-निगह-दारी मेरा साहिल न बन जाए
ये मेरी ख़ुद-निगह-दारी मेरा साहिल न बन जाए
परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए , परेशाँ

उरूज-ए-आदमी
हा आ आ आ, उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
सहमे जाते हैं, सहमे जाते हैं
आ आ आ आ आ आ
उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं, ए ए ए ए
कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए
कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए
परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए
जो मुश्किल अब है या रब फिर वो ही मुश्किल न बन जाए
परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए

Wissenswertes über das Lied Pareshan Hoke Meri von मेहदी हस्सान

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Das Lied “Pareshan Hoke Meri” von मेहदी हस्सान wurde von Muhammad Iqbal komponiert.

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